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20200728

पाठानुसंधान के सरोकार और पांडुलिपि - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

पांडुलिपियाँ बहुत कुछ कहती हैं - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 
मनुष्य की अविराम जिज्ञासा और नितनूतन ज्ञान की पिपासा सदियों से अनुसंधान कार्य को गति देती आ रही है। प्राचीन दौर से जुड़ी सूचनाओं, ज्ञान, विचार और संवेदनाओं के शोध की दिशा में देश-दुनिया के निजी और संस्थागत संग्रहों में संचित - संरक्षित पांडुलिपियाँ अत्यंत उपयोगी रही हैं। 

पाण्डुलिपि उस दस्तावेज को कहते हैं जो एक व्यक्ति या अनेक लोगों द्वारा हाथ से लिखी गयी हो, जैसे हस्तलिखित ग्रंथ या पत्र या कोई अन्य पाठ। मुद्रित किया हुआ या किसी अन्य विधि से किसी दूसरे दस्तावेज से यांत्रिक अथवा वैद्युत रीति से नकल करके तैयार की गई सामग्री को पाण्डुलिपि नहीं कहा जा सकता है। 

पांडुलिपि का वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्व हो सकता है और उसे कम से कम आधी सदी से पुरातन होना चाहिए। पांडुलिपियाँ मात्र ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं होतीं, बल्कि ये किसी सभ्यता में घटित परिवर्तनों की साक्षी भी होती हैं। प्राचीन सभ्यता का जीवंत इतिहास इनमें समाया होता है। ये प्राचीन दौर के मानव समुदायों के आस्था, विश्वास और व्यवस्थाओं की गवाह होती हैं और इन सबसे बढ़कर उस सभ्यता की विभिन्न परंपराओं और अनुभवों की मुखर प्रतिनिधि होती हैं।

Manuscript of Ramcharitmanas by Tulsidas
तुलसीदास कृत रामचरितमानस की चित्रित पांडुलिपि

भारत, मिस्र, ग्रीक, चीन सहित कई पुरातन सभ्यताओं का प्राचीन ज्ञान-परंपरा की समृद्धि की दृष्टि से दुनियाभर में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 50 लाख पांडुलिपियाँ हैं, जो सम्भवतः विश्व में सबसे बड़ी पांडुलिपियों की संख्या है। सब मिलाकर ये पांडुलिपियाँ ही भारत के इतिहास, संस्कृति, ज्ञान विज्ञान, साहित्य और जातीय स्मृतियों का जीवंत दस्तावेज हैं। ये पाण्डुलिपियाँ विभिन्न भाषाओं, लिपियों एवं विषयों की हैं। ये भारत के अन्दर और भारत के बाहर, सरकारी संस्थाओं, संग्रहालयों या निजी हाथों में हैं। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन - नमामि इन सबका पता लगाने, उन्हें सुरक्षित रखने, इनके दस्तावेजीकरण और उन्हें जनता के लिये सुलभ बनाने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है, जिससे हमारे अतीत को इसके वर्तमान एवं भविष्य से जोड़ा जा सके। भारत में उपलब्ध पांडुलिपियाँ मुख्य रूप से शारदा लिपि, देवनागरी, ग्रंथ लिपि, बंगला, ओड़िया, कैथी आदि में लिपिबद्ध हैं।

प्राचीन पांडुलिपियाँ मानव सभ्यता की अमूल्य निधि हैं। प्राचीन काल में मुद्रण की सुविधा न होने के कारण पाठ सामग्री वाचिक परंपरा के माध्यम से संचरित होती थीं या शिलांकित अथवा हस्तलिखित रूप में संरक्षित होती थीं। हस्तलिखित ग्रंथों के कई संस्करण होते हैं, जो वाचन करने वालों के लिए कई प्रकार की समस्या उत्पन्न कर देते हैं। परिणामतः मूल पाठ का अन्वेषण अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

प्राचीन युग के दुर्लभ ग्रंथों और अभिलेखों के लिए पाठ-शोध की विशेष आवश्यकता होती है। पाठानुसंधान या पाठ-शोध ऐसी बौद्धिक और वैज्ञानिक विधि है, जिससे पाठ के संबंध में निर्णय देते हुए मूलपाठ का निर्धारण किया जाता है। कुछ लोग इसे साहित्यिक आलोचना का अंग भी मानते हैं। पाठ से तात्पर्य उस लेख से है, जो किसी भाषा में लिपिबद्ध हो, जिसका अर्थ ज्ञात हो या नहीं भी हो सकता है। किसी रचना के विभिन्न पाठों से युक्त प्रतिलिपियों के अध्ययन, अनुशीलन एवं निश्चित सिद्धांतों के अनुगमन द्वारा उस रचना के मूलपाठ तक पहुँचने की प्रक्रिया पाठ-शोध या पाठानुसंधान है। इसे पाठ-संपादन और पाठालोचन भी कहा जाता है। पाठ-शोध का मूल उद्देश्य पाठ का मूल लेखक कौन था, मात्र यह जानना ही नहीं है, वरन विशेष तौर पर यह जानना होता है कि रचना का मूलस्वरूप क्या था और उसका निहितार्थ क्या है।

किसी भी क्षेत्र में पाठ संशोधन के मुख्यतः दो स्रोत हो सकते हैं- मुख्य सामग्री और सहायक सामग्री। मुख्य सामग्री के अंतर्गत मूल लेखक के पाठ जैसे स्वहस्तलेख (पांडुलिपि), प्रथम प्रतिलिपि, प्रतिलिपि की अन्य प्रतियों को देखा जा सकता है। सहायक सामग्री के अंतर्गत भोजपत्र, ताड़पत्र, पत्थर, कागज़, सिक्के आदि आते हैं।

पाठानुसंधान की प्रक्रिया अत्यंत वैज्ञानिक और दुरूह प्रक्रिया है। इसके प्रमुख चरण हैं- सर्वप्रथम सामग्री संकलन और वंश-वृक्ष का निर्माण, इस वंश-वृक्ष निर्माण विधि को जर्मन भाषावैज्ञानिक कार्ल लाचमान ने प्रसिद्ध किया। तत्पश्चात साम्य और अंतर के आधार पर पाठ निर्धारण और प्रतिलिपियों के संबंध का निर्धारण, पाठ में भाषा और वर्तनी संबंधी आवश्यक सुधार तथा पाठ का सम्यक् विवेचन करते हुए मूल पाठ का निर्धारण।

वर्तमान में पाठ सम्पादन के क्षेत्र में नवीन विधियों का प्रयोग भी किया जा रहा है। जीवविज्ञान की विधि क्लैडिस्टिक्स का इस्तेमाल इस क्षेत्र में भी किया जा रहा है। इसमें एक विशेष कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की सहायता से पाठ शोध किया जाता है। इस विधि का इस्तेमाल इंगलैंड के प्रसिद्ध कवि ज्योफ्रे चॉसर की 14 वीं शताब्दी में लिखी गई कहानियों की पुस्तक कैंटरबरी टेल्स के पाठ सम्पादन के लिए किया गया। इंग्लैंड के प्रसिद्ध कवि ज्योफ्रे चॉसर की अंतिम और सर्वोतम रचना के रूप में प्रतिष्ठित कैंटरबरी टेल्स में दो गद्य रूप में तथा बाइस पद्य रूप में कहानियों का संग्रह है। इससे अंग्रेजी साहित्य में आधुनिक अर्थ में जीवन के यथार्थ चित्रण की परंपरा की शुरुआत होती है। कवि ने कहानियों की उद्भावना स्वयं न करके समस्त यूरोपीय साहित्य तथा जनसाधारण में प्रचलित आख्यायिकाओं को आधार बनाया है। इसीलिए इनमें विविधता है। इस कृति की चौरासी उपलब्ध पांडुलिपियों में से मूल पाठ को खोजना बेहद मुश्किल था, जिसके लिए जीवविज्ञान की विधि क्लैडिस्टिक्स का सार्थक इस्तेमाल किया गया।

जाहिर है कि पाठ सम्पादन का कार्य अत्यंत चुनौतियों से भरा हुआ है तथा इस दिशा में नितनवीन संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं।

अक्षर वार्ता : 
सम्पादकीय से
आप सभी सुधीजनों के आत्मीय सहकार- सहयोग से ‘अक्षर वार्ता’ मौलिक और गुणवततापूर्ण शोध के प्रसार एवं उन्नयन के साथ ही नवीन शोध दिशाओं के अन्वेषण में सन्नद्ध है। इसे और गतिशीलता देने के लिए आपके सक्रिय सहकार और सुझावों का सदैव स्वागत रहेगा।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ईमेल  shailendrasharma1966@gmail.com                                                         
डॉ मोहन बैरागी 
संपादक
ईमेल  aksharwartajournal@gmail.com

अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी । संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)। प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, 
(May 2016)

20141204

घर-आँगन से व्यापक लोक-जीवन तक जीवंत रहने दें लोक-संस्कृति को


अक्षर वार्ता : लोक-संस्कृति पर एकाग्र विशिष्ट अंक कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक लोक विरासत के प्रति नई चेतना का आह्वान करता है। पेश है कुछ अंश ------ सम्पादकीय: किसी भी परम्पराशील राष्ट्र की सही पहचान लोक एवं जनजातीय भाषा और संस्कृति के बिना संभव नहीं है। इधर एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रों, विशेष तौर पर भारत को ही देखें तो हम पाते हैं कि यहाँ की संस्कृति और सभ्यता न जाने किस सुदूर अतीत से आती हुई परम्पराओं पर टिकी हुई है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति विविध लोक एवं जनजातीय संस्कृतियों का जैविक समुच्चय है, जिसके निर्माण में अज्ञात अतीत से सक्रिय विविध जनसमुदायों की सहभागी भूमिका चली आ रही है। सारे भारत की भाषा और बोलियाँ तथा उनसे जुड़ी संस्कृति एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले इस तरह से खड़ी हैं कि उन्हें एक-दूसरे से विलग किया जाना संभव नहीं है। इनके बीच मेल-मिलाप का सिलसिला पुरातन काल से चला आ रहा है। लोक और जनजातीय समुदायों से उनकी संस्कृति, परम्परा और कलारूपों का रिश्ता इतना नैसर्गिक और जीवन्त है कि उनके बीच विभाजक रेखा खींच पाना असंभव है। वस्तुतः लोक-संस्कृति परंपराबद्ध समूहों द्वारा स्थानीय रूप से अधिनियमित रोजमर्रा की जिंदगी के एकीकृत प्रभावपूर्ण घटकों को मूर्त करती है। एक दौर में लोक-संस्कृति की अवधारणा मुख्य रूप से अन्य समूहों से पृथक रहने वाले लघु, सजातीय और ग्राम्य समूहों में प्रचलित परंपराओं पर केंद्रित थी। किन्तु आज लोक-संस्कृति आधुनिक और ग्रामीण घटक - दोनों के एक गतिशील निरूपण के रूप में चिह्नित की जाती है। ऐतिहासिक रूप से यह मौखिक परंपरा के माध्यम से हस्तांतरित होती आ रही थी, वहीं अब तेजी से गतिशील कंप्यूटरसाधित संचार के माध्यम से विस्तार पा रही है। इसके जरिये समूहगत पहचान और समुदाय के विकास की दिशाएँ भी खुल रही हैं। लोक-संस्कृति बहुधा स्थानीयता की भावना के साथ गहराई से रंजित रही है। यहाँ तक कि जब किसी परदेशी द्वारा एक लोक-संस्कृति के तत्वों की नकल की जाती है या उसे अपने यहाँ स्थानांतरित करने की कोशिश की जाती है, तो वह अभी भी अपने सृजन के मूल स्थान के संपृक्तार्थों को मजबूती के साथ ले जाती है। वर्तमान दौर में लोक-संस्कृति के अनेक तत्त्व लोकप्रिय और आभिजात्य संस्कृति में अंतर्लीन होते हुए भी दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में लोक-संस्कृति का अध्ययन-अनुसंधान नई चुनौतियाँ उपस्थित कर रहा है। इस दिशा में अक्षर वार्ता अपने विनत प्रयासों के साथ उपस्थित है। हमारी समृद्ध लोक-संस्कृति से जुड़े शोध-अनुशीलन को प्रोत्साहन देने के लिए अक्षर वार्ता सन्नद्ध है, प्रस्तुत अंक में इसकी बानगी मालवा-निमाड़ अंचल से जुड़ी महत्त्वपूर्ण सामग्री से मिलेगी। भारत के हृदय अंचल मालवा-निमाड़ ने एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को ‘गागर में सागर’ की तरह आत्मसात किया हुआ है। यहाँ की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को यहाँ की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा-निमाड़ अंचल के निकटवर्ती अंचलों में मेवाड़, हाड़ौती, गुजरात, भीलांचल, महाराष्ट्र और बुन्देलखण्ड इन्द्रधनुष की तरह अपने-अपने रंग इस क्षेत्र में बिखेरते आ रहे हैं। इन सभी की मिठास और ऐश्वर्य को इस अंचल ने अपने अंदर समाया है, वहीं इन सभी को अपने जीवन रस से सींचा भी है। यहाँ की संस्कृति का भारतीय संस्कृति, जीवनशैली और परम्परा के साथ गहरा तादात्म्य रहा है। इसके प्रमाण वैदिक वाङ्मय से लेकर महाभारत और पुराणकाल तक सहज ही उपलब्ध हैं। लोक-भाषाएँ, साहित्य और विविध कलाभिव्यक्तियाँ वस्तुतः भारतीय संस्कृति के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में विविध समुदाय अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। वैसे तो दुनियाभर में छह हजार भाषाएँ बोली जाती हैं, लेकिन भाषागत विविधता का आबादी की सघनता से कोई नाता दिखाई नहीं दे रहा है। संसार में हर साल कहीं न कहीं दस भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। यह संकट उन तमाम बोली-उपबोलियों के समक्ष गहराता जा रहा है, जिनके प्रयोक्ता या तो इन्हें पिछड़ेपन की निशानी मानकर इनसे दूर हो रहे हैं या कथित आधुनिकता की दौड़ में पराई भाषा की ओर उन्मुख हो रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजें और लोक-भाषाओं को उसके घर-आँगन से लेकर व्यापक लोक जीवन के बीच बहने-पनपने दें। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रेमियों, शोधकर्ताओं और लोक-संस्कृतिविदों के समेकित प्रयत्नों की दरकार है।------------ प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा (प्रधान संपादक) एवं डॉ मोहन बैरागी (संपादक) (आवरण-छायांकन: प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा) (ईमेल aksharwartajournal@gmail.com)

20141124

शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में गतिशील 'अक्षर वार्ता'

सम्पादकीय- नवंबर 2014 मानवीय ज्ञान की उन्नति और जीवन की सुगमता के लिए शोध की महत्ता एक स्थापित तथ्य है। प्रारम्भिक शोध का लक्ष्य नवीन तथ्यों का अन्वेषण था। इसके साथ क्रमशः व्याख्या-विवेचना का पक्ष जुड़ता चला गया। शोध की नई-नई प्रक्रिया-प्रविधियों के विकास के साथ मानवीय ज्ञान का क्षितिज भी विस्तृत होता चला गया। यह कहना उचित होगा कि वर्तमान विश्व शोध की असमाप्त यात्रा का एक पड़ाव भर है, चरम नहीं। मनुष्य के कई स्वप्न, कई कल्पनाएँ अब वास्तविकता में परिणत हो चुके हैं और अनेक साकार होने जा रहे हैं। यह सब अनुसंधान कर्ताओं की शोध-दृष्टि और उस पर टिके रहकर किए गए अथक प्रयासों से ही संभव हो सका है। सदियों पहले किए गए कई शोध आज की हमारी नई दुनिया की नींव बने हुए हैं। मुश्किल यह है कि हमारी नज़र कंगूरों पर टिकी होती है, नींव ओझल बनी रहती है। वस्तुतः ऐसे नींव के पत्थर बने शोधकर्ताओं को स्मरण किया जाना चाहिए। अनुसंधान की अनेकानेक पद्धतियाँ हैं, जो ज्ञानमीमांसा पर निर्भर करती हैं। यह दृष्टिकोण ही मानविकी और विज्ञान के भीतर और उनके बीच - दोनों में पर्याप्त भिन्नता ले आता है। अनुसंधान के कई रूप हैं- वैज्ञानिक, तकनीकी, मानविकी, कलात्मक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापार, विपणन, व्यवसायी अनुसंधान आदि। यह शोधकर्ता के दृष्टिकोण पर ही निर्भर करता है कि वह किस पद्धति को आधार बनाता है या उसका फोकस किस पर है। वर्तमान दौर में वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में तेजी आई है। यह अनुसंधान डेटा संग्रह, जिज्ञासा के दोहन का एक व्यवस्थित तरीका है। यह शोध व्यापक प्रकृति और विश्व की सम्पदा की व्याख्या के लिए वैज्ञानिक सूचनाएं और सिद्धांत उपलब्ध कराता है। यह विविध क्षेत्रों से जुड़े व्यावहारिक अनुप्रयोगों को संभव बनाता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए पहले समस्या की तलाश करना होती है। तत्पश्चात उसकी प्राक्कल्पना करना होती है। उसके बाद अन्वेषण आगी बढ़ता है, जहां विविध प्रकार के आंकड़ों का परीक्षण-विश्लेषण कर एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है। पूर्व-कल्पनाएं और अब तक प्राप्त तथ्य बार-बार पुनरीक्षित किए जाते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान विभिन्न प्रकार के संगठनों और कंपनियों सहित निजी समूहों द्वारा वित्तपोषित होते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान उनके अकादमिक और अनुप्रयोगात्मक अनुशासनों के अनुरूप विभिन्न आयामों में वर्गीकृत किए जा सकता हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान एक अकादमिक संस्था की प्रतिष्ठा को पहचानने के लिए व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी माना जाता है। लेकिन कुछ लोग तर्क देते हैं कि इस आधार पर संस्था का गलत आकलन होता है, क्योंकि अनुसंधान की गुणवत्ता शिक्षण की गुणवत्ता का संकेत नहीं करती है और इन्हें आवश्यक रूप से पूरी तरह एक-दूसरे से सहसंबद्ध नहीं किया जा सकता है। मानविकी के क्षेत्र में अनुसंधान में कई तरह प्रविधियाँ, उदाहरण के तौर पर व्याख्यात्मक और संकेतपरक आदि समाहित होती हैं और उनके सापेक्ष ज्ञानमीमांसा आधार बनती है। मानविकी के अध्येता आम तौर पर एक प्रश्न के परम सत्य उत्तर के लिए खोज नहीं करते हैं, वरन उसके सभी ओर के मुद्दों और विवरणों की तलाश में सक्रिय होते हैं। संदर्भ सदैव महत्वपूर्ण बना रहता है और यह संदर्भ, सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या जातीय हो सकता है। मानविकी में अनुसंधान का एक उदाहरण ऐतिहासिक पद्धति में सन्निहित है, जो ऐतिहासिक पद्धति पर प्रस्तुत किया जाता है। इतिहासकार एक विषय के व्यवस्थित अन्वेषण के लिए प्राथमिक स्रोतों और साक्ष्यों का प्रयोग करते हैं और तब अतीत के लेखे-जोखे के रूप में इतिहास का लेखन करते हैं। रचनात्मक अनुसंधान को 'अभ्यास आधारित अनुसंधान' के रूप में भी देखा जाता है। यह अनुसंधान वहाँ आकार लेता है, जब रचनात्मक कार्यों को स्वयं शोध या शोध के लक्ष्य के रूप में लिया जाता है। यह चिंतन का विवादी रूप है, जो ज्ञान और सत्य की तलाश में अनुसंधान की विशुद्ध वैज्ञानिक प्रविधियों के समक्ष एक विकल्प प्रदान करता है। शोध की प्रयोजनपरकता, स्तरीयता और गुणवत्ता की राह सुगम हो, यह विचार इस पत्रिका के लक्ष्यों में अन्तर्निहित है। शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में सक्रिय अनेक विद्वानों, मनीषियों और शोधकर्ताओं का सक्रिय सहयोग हमें मिल रहा है। सांप्रतिक शोध परिदृश्य में 'अक्षर वार्ता' रचनात्मक हस्तक्षेप का विनम्र प्रयास है , इस दिशा में आप सभी के सहकार के लिए हम कृतज्ञ हैं। पत्रिका को बेहतर बनाने के लिए आपके परामर्श हमारे लिए सार्थक सिद्ध होंगे, ऐसा विश्वास है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा -प्रधान संपादक एवं डॉ मोहन बैरागी - संपादक

20141008

संस्कृतिकर्म को प्रोत्साहित करे मीडिया

पत्रकारिता के बदलते सरोकार पर राष्ट्रीय परिसंवाद एवं सम्मान समारोह में विद्वानों ने जताई चिंता उज्जैन। बदलते दौर और व्यावसायिकता का गहरा प्रभाव पत्रकारिता पर दिखाई दे रहा हैं। ऐसे में भारतीय मीडिया जगत संस्कृतिकर्म को प्रोत्साहित करना भुलने लगा है,जबकि विदेशो में हमारी संस्कृति के आकर्षण को जिंदा रखा जा रहा है। यहां के मीडिया को चाहिये कि भाषा और संस्कृति को लेकर सजगता लाये और लिपि को बचाने में भी अपना योगदान दें। यह सीख वरिष्ठ मीडिया विशेषज्ञ एवं बैंक ऑफ बडौदा, मुंबई के सहायक महाप्रबंधक डॉ.जवाहर कर्नावट ने दी। वे रविवार को कालिदास अकादमी के अभिरंग नाट्यगृह में आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद एंव सम्मान समारोह में बोल रहे थे। संस्था कृष्णा बसंती और झलक निगम सांस्कृतिक न्यास के इस आयोजन में दैनिक भास्कर के एमपी-2 हेड नरेन्द्र सिंह अकेला ने भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आ रहे बदलाव पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि बीते दौर में सीमित संसाधनों में पत्रकारिता का बेहतर निर्वहन होता था। आज संसाधन और सुविधाएं बढ़ीं, वहीं पत्रकारिता के ज्ञान का अभाव दिखाई देता है। इस क्षेत्र के लोगों में समर्पण और लगन के साथ ही अपने दायित्वों की जिम्मेदारी का अभाव झलकता है। समारोह की अध्यक्षता कर रहें विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक और समालोचक डॉ.शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने संस्कृति और समाज को गति देने में पत्रकारिता को आगे आने की बात की। डॉ.लक्ष्मीनारायण पयोधि, भोपाल ने आंचलिक पत्रकारिता के लिए क्षैत्रिय समाज और संस्कृति की पृष्ठभुमि का ज्ञान जरुरी होने पर जोर दिया। वरिष्ठ पत्रकार एवं कला समीक्षक विनय उपाध्याय, भोपाल ने संस्कृति कर्म को लेकर मीडिया में उपेक्षा का का जिक्र करते हुए इसे अनुचित करार दिया और कला और जीवन के अटूट रिश्ते को समझने की बात कही। डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित ने स्वर्गीय झलक निगम के मालवी साहित्य एवं सस्कृति के क्षेत्र में उनके अवदान पर प्रकाश डाला। वरिष्ठ अधिवक्ता सुभाष गौड ने भी स्वर्गीय निगम के मालवी के संवर्धन के लिए व्यापक प्रयत्न का उल्लेख किया। कार्यक्रम के शुभारंभ में लेखिका सुशीला निर्मोही के पांचवें काव्य संग्रह ‘कलरव’ तथा अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका अक्षर वार्ता का लोकापर्ण अतिथियों द्वारा किया गया। इसके अलावा प्रसन्नता शिंदे के अग्रेजी उपन्यास डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट मेन ‘ए ट्रू लव टेल’ के कवर पेज का विमोचन किया। ‘कलरव’ की समीक्षा व्यंगकार डॉ.पिलकेन्द्र अरोरा ने की। अतिथि परिचय डॉ.जगदीशचंद्र शर्मा ने दिया। संस्था कृष्णा बसंती की गतिविधियों एवं उद्देश्यों की जानकारी संस्था अध्यक्ष डॉ.मोहन बैरागी ने दी। झलक निगम सांस्कृतिक न्यास की जेड श्वेतिमा निगम ने न्यास की जानकारी दी। इसी बीच संस्था कृष्णा बसंती द्वारा साहित्य,पत्रकारिता,लेखन एवं कला आदि क्षेत्र में योगदान देने वालों को सम्मानित किया गया। अतिथि स्वागत श्वेतिमा निगम,रुचिर प्रकाश निगम,डॉ. मोहन बैरागी,निशा बैरागी,भावना निगम,डॉ.ओ.पी.वैष्णव,सुरेश बैरागी, कृष्णदास बैरागी आदि ने किया। सरस्वती वंदना मालवी कवि मोहन सोनी ने की। परिसंवाद का संचालन श्री जीवनप्रकाश आर्य ने किया। वृहद काव्य गोष्ठी का संचालन कृष्णदास बैरागी द्वारा किया गया,जबकि पुस्तक विमोचन का संचालन कार्यक्रम का संचालन राजेश चौहान राज ने किया। आभार कृष्णा बसंती के डॉ.ओ.पी.वैष्णव ने माना। इनका किया सम्मान-साहित्य के क्षेत्र में वरिष्ठ कवि मोहन सोनी,व्यंग्यकार पिलकेन्द्र अरोरा,शायर रमेशचंद्र ‘सोज’,कवि अरविंद त्रिवेदी ‘सनन’,गीतकार कैलाश ‘तरल’,लघुकथाकार संतोष सुपेकर,रचनाकार संदीप सृजन,व्यंग्यकार राजेन्द्र देवधरे,गीतकार राजेश चौहान ‘राज’,पक्षीवैज्ञानिक डॉ. जे पी एन पाठक,चित्रकार अक्षय आमेरिया,पत्रकार राजीव सिंह भदौरिया (दैनिक भास्कर),रवि चंद्रवंशी (पत्रिका),निरुक्त भार्गव (फ्रीप्रेस) और सुधीर नागर (नईदुनिया) के अलावा इलेक्ट्रानिक मीडिया से फोटो जर्नलिस्ट प्रकाश प्रजापत (नईदुनिया) तथा सुनील मगरिया (हिंदुस्तान टाईम्स) आदि प्रमुख थे। [प्रस्तुति-डॉ.मोहन बैरागी,अध्यक्ष,संस्था कृष्णा बसंती, उज्जैन ]

20140809

अक्षर वार्ता : शोध की अभिनव दिशाओं की तलाश में एक उपक्रम AKSHARWARTA: RESEARCH PAPER SUBMISSION GUIDELINES

Aksharwarta ISSN 2349-7521 International research journal is an international academic , interdisciplinary, Monthly, and fully  refereed journal focusing on theories, methods and applications in various fields like Arts, Humanities, Social Science, Mass Communication, Science. The Journal promotes the submission of manuscripts that meet the general criteria of significance and Research excellence.
The following formats of the manuscripts can be accepted: Research Papers, Case Studies, Thematic Articles, Book Reviews and Conference Papers.
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Word Limit-  2500-5000 words are preferred. Type Your Research paper in MS-Word along with your name, Designation, Subject name of institution, E-mail Address, Postal Address, Contact Number.Font Size- Title 14 Point Bold, Text-12
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. Computer typed research paper
. CD/DVD of your research paper
. Copyright notice and membership form (download from website)
. Manuscripts may be submitted directly to this email address: 
aksharwartajournal@gmail.com
Decision of Publication:
The decision of publication will be based on the recommendations of the editorial board. once the board goes through the report of reviewers and doubtable blind review process. An acknowledgement of receipt of manuscripts would be sent to the authors.All the legal undertaking related to this research journal is subjected to be hearable at Ujjain jurisdiction only. Note: Authors will be answerable to the content of their articles 
शोध-पत्र भेजने संबंधी नियम
शोध-पत्र 2500-5000 शब्दों से अधिक नही होना चाहिए।  • हिन्दी माध्यम  के शोध-पत्रों को कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फोंट  (Kruti Dev 010) में टाईप करवाकर माइक्रोसाफट वर्डमें भेजें।  • अंग्रेजी माध्यम के शोध-पत्र टाइम्स न्यू रोमन (Times New Roman), एरियल फोंट (Arial)  में टाइप करवाकर माइक्रोसॉफ वर्डमें भेज सकते है।  • शोध-पत्र की सॉफ्टकॉपी अक्षरवार्ताके ईमेल आईडी पर भेजने के बाद हार्ड कॉपी, शोध-पत्र के मौलिक होने के घोषणा-पत्र के साथ हस्ताक्षर कर अक्षरवार्ताके कार्यालय को प्रेषित करें।  • Please Follow- APA/MLA Style for formatting • अक्षरवार्ता की वार्षिक सदस्यता का शुल्क रु 500 भुगतान  बैंक द्वारा सीधे ट्रांसफर या जमा किया जा सकता है। बैंक का विवरण निम्नानुसार है- बैंक : Corporation Bank, Branch- Rishi Nagar,Ujjain, IFSC- CORP0000762 ,Account Holder- Aksharwarta, Current Account NO. 076201601000018 भुगतान की मूल रसीद, शोध-पत्र एवं सीडी के साथ कार्यालय पते पर भेजना अनिवार्य है।अक्षर वार्ता का प्रबंधन और संपादन पूर्णत: अवैतनिक है, अक्षर वार्ता में प्रकाशित लेखों में व्यक्त विचार संबंधित लेखकों के अपने हैं। उनके प्रति वे स्वयं उत्तरदायी हैं। संपादक मण्डल व प्रकाशक का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं हैं। पत्रिका से संबंधित प्रत्येक विवाद का न्याय क्षेत्र उज्जैन ही मान्य होगा।

प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
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