नए विमर्शों के बीच साहित्य की सत्ता के सवाल पर आलेख अपनी माटी पर पढ़ सकते हैं....
साहित्य
की सत्तामूलतःअखण्ड और अविच्छेद्य सत्ता है। वह जीवन और
जीवनेतर सब कुछ को अपने दायरे में समाहित कर लेता है। इसीलिए उसे किसी स्थिर
सैद्धांतिकी की सीमा में बाँधनाप्रायःअसंभवरहाहै। साहित्य को देखने के लिए नजरिये भिन्न-भिन्न हो
सकते हैं,जो
हमारी जीवन-दृष्टि पर निर्भर करते हैं। एक ही कृति को देखने-पढ़ने की कई दृष्टियाँ हो सकती हैं। उनके बीच सेरचनाकी समझ को विकसित करने के प्रयास लगभग साहित्य-सृजन की
शुरूआत के साथ ही हो गए थे।
आदिकवि वाल्मीकि जब क्रौंच युगल के बिछोह के शोक से अनायास श्लोक की रचना कर देते
हैं,तब उन्हें
स्वयं आश्चर्य होता है कि यह क्या रचा गया? इक्कीसवीं
सदी के दूसरे दशक तक आते-आते साहित्य से जुड़े क्या,क्यों और
कैसे जैसे प्रश्न अब भी ताजा बने हुए लगते हैं,तो यह
आकस्मिक नहीं हैं।
आज
का दौर भूमण्डलीकरण और उसे वैचारिक आधार देने वाले उत्तर आधुनिक विमर्श और मीडिया
की विस्मयकारी प्रगति का दौर है। इस दौर में साहित्य और उसके मूल में निहित
संवेदनाओं के छीजतेजाने
की चुनौती अपनी जगह है ही,साहित्य
और सामाजिक कर्म के बीच का रिश्ता भी निस्तेज किया जा रहा है। ऐसे में साहित्य की
ओर से प्रतिरोध बेहद जरूरी हो जाता है। इधर साहित्य में आ रहे बदलाव नित नए
प्रतिमानों और उनसे उपजेविमर्शों के लिए आधार बन रहे हैं। वस्तुतःकोई
भी प्रतिमान प्रतिमेय से ही निकलता है और उसी प्रतिमान से प्रतिमेय के मूल्यांकन
का आधार बनता है। फिर एक प्रतिमेय से निःसृत प्रतिमान दूसरे नव-निर्मित
प्रतिमेय पर लागू करने पर मुश्किलें आना सहज है। पिछले दशकों में शीतयुद्ध की
राजनीति ने वैश्विक चिंतन को गहरे आन्दोलित किया,जिसका
प्रभाव भारतीय साहित्य एवं कलाजगत् पर सहज ही देखा जाने लगा। इसीप्रकार भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की वर्चस्वशाली
उपस्थिति ने भी मनुष्य जीवन से जुड़े प्रायः सभी पक्षों पर अपना असर जमाया। इनसे
साहित्यकाअछूता रहपाना कैसी संभवथा?उत्तर
आधुनिकता,फिर उत्तर
संरचनावाद और विखंडनवाद के प्रभावस्वरूप पाठ के विखंडन का नया दौर शुरू हुआ। इसी
दौर में नस्लवादी आलोचना,नारी
विमर्श,दलित
विमर्श,आदिवासी
विमर्श,सांस्कृतिक-ऐतिहासिक
बोध जैसी विविध विमर्शधाराएँ
विकसित हुईं। केन्द्र के परे जाकर परिधि को लेकर नवविमर्श की जद्दोजहद होने लगी।
ऐसे समय में मनुष्य और साहित्य की फिर से बहाली पर भी बल दिया जाने लगा। पिछले दो-तीन दशकों
में एक साथ बहुत से विमर्शों ने साहित्य,संस्कृति
और कुल मिलाकर कहें तो समूचे चिंतन जगत् को मथा है।हिन्दी
साहित्य मेंहाल
के दशकों मेंउभरे
प्रमुख विमर्शों में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श,आदिवासी
विमर्श,वैश्वीकरण,बहुसांस्कृतिकतावादआदि
को देखा जा सकता है।ये विमर्श साहित्य को देखने की नई दृष्टि देते
हैं,वहीं इनका
जैविक रूपायन रचनाओं में भी हो रहा है।-प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
भारतीय पर्वोत्सवों की परंपरा में होली अपने उल्लासपूर्ण स्वभाव और अलबेलेपन के लिए जानी जाती है। यह सुदूर अतीत से चली आ रही जातीय स्मृतियों, पुराख्यानों और इतिहास को जीवंत करने वाला पर्व है। यह मूलतः लोक पर्व है, जिसे शास्त्रकारों ने अपने ढंग से महिमान्वित किया तो राज्याश्रय ने इसमें अपने रंग भरे। उत्तर भारत में जब फागुन उतरता है तो प्रकृति के आंगन में रंग और उमंग बिखरने लगते हैं, फिर मनुष्य इससे कैसे मुक्त रह सकेगा। भारत के अलग अलग अंचलों में होली से जुड़ी परंपराओं, रीति रिवाजों और कथा भूमि में कतिपय अंतर के बावजूद अनेक समानताएँ हैं। होली का रिश्ता सभी चरित नायकों से जुड़ा, चाहे स्वयं शिव हों या
राम, कृष्ण जैसे विष्णु के अवतार, सब होली के रंंग में डूबते हैं।
कृष्णकाव्य में लोक पर्व होली की विविध छबियाँ अंकित हुई हैं। चंग, डफ जैसे वाद्य हों या धमार का गान, होली के नृत्य हों या क्रीड़ाएँ, या फिर चंदन, केसर, गुलाल जैसे रंगों की बौछार - कृष्ण भक्ति में डूबे कवि अपने आराध्य के साथ वहाँ ले जाकर हमें भी डुबो देते हैं। मीरा फाग खेलते छैल-छबीले कृष्ण के प्रभाव से पूरे ब्रजमण्डल को रस में आप्लावित दिखाती हैं।
होरी खेलत हैं गिरधारी।
मुरली चंग बजत डफ न्यारो, संग जुवति ब्रजनारी।
चंदन केसर छिरकत मोहन अपने हाथ बिहारी।
भरि भरि मूठि गुलाल लाल चहुँ देत सबन पै डारी।
चंद्रसखी कुछ अलग अंदाज में इसे प्रस्तुत करती हैं :
आज बिरज में होरी रे रसिया। आज बिरज में होली रे रसिया।।
होरी रे होरी रे बरजोरी रे रसिया।
घर घर से ब्रज बनिता आई,
कोई श्यामल कोई गोरी रे रसिया।
आज बिरज में…॥१॥
इत तें आये कुंवर कन्हाई,
उत तें आईं राधा गोरी रे रसिया
आज बिरज में…॥२॥
कोई लावे चोवा कोई लावे चंदन,
कोई मले मुख रोरी रे रसिया ।
आज बिरज में ॥३॥
उडत गुलाल लाल भये बदरा,
मारत भर भर झोरी रे रसिया।
आज बिरज में ॥४॥
चन्द्रसखी भज बालकृष्ण प्रभु,
चिर जीवो यह जोडी रे रसिया।
आज बिरज में ॥५॥ - - - - - - - - - - - - -
Main Kaise Holi Khelungi Ya Sanwariya ke Sang | Holi Dance| मैं कैसे होली खेलूँगी या सांवरिया के संग
https://youtu.be/xn2avjUFfUU
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https://youtu.be/7j9RkWfF7Mo
Holi Mahakaleshwar Temple | Holi Festival | महाकालेश्वर मंदिर की होली| #mahakaleshwar #holi #ujjain
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होली की पृष्ठभूमि में प्रहलाद - नरसिंह की लीला से जुड़ा आख्यान प्रसिद्ध है। उसे महाराष्ट्र में कुछ इस तरह नृत्याभिव्यक्ति मिली है।
Mhara Hathan me Abeer Gulal re | Chalo Holi Khelanga| Holi Song | चालो होली खेलांगा |मालवी होली गीत
****** राधा कृष्ण की लीला से जुड़ा लोक गीत मेरो खोए गयो बाजूबंद कान्हा होली में बहुलोकप्रिय है :
Holi Song - Dance : Mero Khoy Gayo Bajuband Kanha Holi Main | Happy Holi to All | होली गीत - नृत्य | मेरो खोय गयो बाजूबन्द कान्हा होली में | लिंक पर जाएँ :
पद्माकर ने लोक के साथ संवाद करते हुए अनेक रचनाएं लिखी हैं। होली पर उनके छंद विशेष ध्यान आकर्षित करते हैं
होली - पद्माकर
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी।।
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला! फिर खेलन आइयो होरी॥
कढिगो अबीर पै अहीर को कढै नहीँ
- पद्माकर
एक संग धाय नंदलाल और गुलाल दोऊ,
दृगन गये ते भरी आनँद मढै नहीँ ।
धोय धोय हारी पदमाकर तिहारी सौँह,
अब तो उपाय एकौ चित्त मे चढै नहीँ ।
कैसी करूँ कहाँ जाऊँ कासे कहौँ कौन सुनै,
कोऊ तो निकारो जासोँ दरद बढै नहीँ ।
एरी! मेरी बीर जैसे तैसे इन आँखिन सोँ,
कढिगो अबीर पै अहीर को कढै नहीँ ।
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मालवा में बसे लोक और जनजातीय समुदायों में होली और फाग के साथ भीलों के भंगुर्या या भगोरिया का अपना अंदाज है। मदनमोहन व्यास की होली पर केंद्रित रचना देखिए :
होळी आइ रे (मालवी)
- मदनमोहन व्यास होळी आइ रे फाग रचाओ रसिया रे होळी आइ रे। रंग गुलाल उड़े घर घर में, सुख का साज सजाओ रसिया॥ होळी...... गउँ ने जुवारा चणा सब आया तो हिळी-मिळी खाओ खिलाओ रसिया॥ होळी..... मेहनत से जो आवे पसीनो, ऊ गंगा जळ है न्हाओ रसिया॥ होळी...... रिम-झिम नाचे चाँद-चाँदणी, तो हाथ में हाथ मिलाओ रसिया॥ होळी...... फागण धूप छाँव सो जावे रे कजा कदे आवे तो मन को होंस पुराओ रसिया॥ होळी...... मन की मजबूरी को कचरो, होळी में राख बणाओ रसिया॥ होळी..... जय भारत जय महाकाळ की, चारी देश गुँजाओ रसिया॥ होळी...... होळी आई रे फगा रचाओ रसिया॥ होळी...... - - - - - - - - - - - - -
Holi Festival |Mahakaleshwar Temple | महाकाल मंदिर की होली | #mahakaleshwar #holi #ujjain
मालवा क्षेत्र में होली की गैर पर गाए जाने वाले गीत बन को चले दोनों भाई सुनिए :
Best Nagada Recital | नगाड़ा, डमरू और शंख वादन | Folk Songs : Ban Ko Chale Donon Bhai | Dal Badli Ro Pani Saiyan |
होली/गैर गीत- बन को चले दोनों भाई | दल बादली रो पानी सैयां| Nagada Recital by Nagada Samrat Shri Narendra Singh Kushwah | Singer : Pt. Shailendra Bhatt | नगाड़ा वादन : नगाड़ा सम्राट नरेंद्र सिंह कुशवाह द्वारा | गायन : पं. शैलेन्द्र भट्ट | लिंक पर जाएँ :-
- नज़ीर अकबराबादी जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में। नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।। कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में। खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।। डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में। गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।। जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी। कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।। होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी। यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी ।। डफ बजे राग और रंग हुए, होरी खेलन की झमकन में। गुलशोर गुलाल और रंग पड़े, हुई धूम कदम की चायन में ।। - - - - - - - - - - - -
जब आई होली रँग-भरी सौ नाज़-अदा से मटक मटक
- नजीर अकबराबादी
जब आई होली रँग-भरी सौ नाज़-अदा से मटक मटक
और घुँघट के पट खोल दिए वह रूप दिखाया चमक चमक
कुछ मुखड़ा करता दमक दमक कुछ अबरन करता झलक झलक
जब पाँव रखा ख़ुश-वक़्ती से एक पायल बाजी झनक झनक
कुछ उछलेंं सैनैं नाज़ भरें कुछ कूदें आहें थिरक थिरक
ये रूप दिखा कर होली के जब नैन रसीले टुक मटके
मँगवाएँ थाल गुलालों के भरवाएँ रंगों से मटके
फिर स्वाँग बहुत तयार हुए और ठाठ ख़ुशी के झुरमुट के
गुल शोर हुए ख़ुश-हाली के और नाचने गाने के खटके
मृदंगे बाजें ताल बजे कुछ खनक खनक कुछ धनक धनक
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पुराणों में होली की परंपरा की उत्स कथा के रूप में प्रह्लाद की रक्षा और होलिका के दहन के कई संकेत मिलते हैं।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १३२ में राजा रघु के समय बच्चों की संक्रामक बीमारी के रूप में ढौंढा राक्षसी का वर्णन है। वह घर में प्रवेश करते समय अडाडा मन्त्र का प्रयोग करती है, अतः उसे अडाडा भी कहते हैं। होम द्वारा उसका लय या नाश होता है, अतः उसे होलिका कहते हैं।
लक्ष्मी नारायण संहिता में रंग, गुलाल तथा धूलि से खेलने का भी उल्लेख है। भविष्य पुराणके अनुसार ढौंढा को अपमानित कर भगाने के लिए अपशब्द, प्रलाप या हर्ष के साथ हास्य तथा गायन करते हैं-