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20150524

यथास्थिति नहीं, परिवर्तन की पक्षधर हैं दिनकर सोनवलकर की कविताएँ - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

परिवर्तन की पक्षधरता और दिनकर सोनवलकर का काव्य 

प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा


स्वतंत्रता के बाद की हिंदी कविता  में समाज और व्यवस्था से जुड़े व्यंग्य की व्याप्ति और विस्तार के लिए दिनकर सोनवलकर (24 मई 1932 – 7 नवम्बर 2000) का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। वे अत्यंत सरल - निश्छल स्वभाव के धनी थे। उनकी कविताएं भी उनके स्वभाव के अनुरूप पारदर्शी हैं। सहज - तरल प्रतीक और बिम्बों की अजस्र माला से बुनी उनकी कविताओं ने साठ के दशक से ही अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया था। फिर सत्तर से नब्बे के दशक तक वे देश के तमाम मंचों और पत्र पत्रिकाओं में छाए रहे। शीशे और पत्थर का गणित, अ से असभ्यता, इकतारे पर अनहद राग, दीवारों के खिलाफ सहित एक दर्जन से अधिक काव्य संग्रहों के रचनाकार और अनुवादक श्री सोनवलकर जी की कविताओं में एक साथ जीवन बोध, व्यंग्य बोध और मूल्य बोध का त्रिवेणी संगम हुआ है।

कविता एक अन्वेषण में उन्होंने लिखा है-

कविता
कोई लबादा तो नहीं
कि ओढ़कर फिरते रहो
और न कोई आवरण
कि स्वयं को छिपाते रहो।
यह कोई पिस्तौल नहीं
कि लुक छिप कर चलाते रहो
और न अंडरग्राउंड केबिन
कि युद्ध से खुद को बचाते रहो।
यह कोई माउथपीस नहीं
कि पार्टी के नारे गुंजाते रहो
और न कोई मठ
कि उपदेश का अमृत पिलाते रहो।
कविता तो बस
ऐसे कुछ क्षण हैं-
जिनमें डूब कर
हम ख़ुद को
तरोताज़ा और
जिंदा महसूस करते हैं।

सुविख्यात कवि, संगीतकार और मनीषी प्रो. दिनकर सोनवलकर ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के अनन्तर हिंदी कविता को बगैर किसी वाद या पन्थ विशेष के अंधानुकरण के मनुष्य के अंतरबाह्य बदलाव का माध्यम बनाया था। उनकी कविताओं में समय और समाज के यथार्थ का बहुकोणीय रूपांकन मिलता है। उनकी कविताएँ यथास्थिति नहीं, परिवर्तन की पक्षधर हैं। उनकी कई लघु, किन्तु मर्मवेधी काव्य-पंक्तियाँ आज भी उनके पाठकवर्ग के मन में पैबस्त हैं। उनके साथ आत्मीय सान्निध्य का सौभाग्य मुझे मिला है, वह अमिट और अविस्मरणीय है।

वे एक समूचे कवि थे। गोष्ठियों से लेकर बड़े बड़े काव्य मंचों तक उनके काव्य-पाठ की सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती थी, वहीं मर्ममधुर कण्ठ से दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के सरस गायन का आस्वाद रसिकों के लिए यादगार अनुभव होता था। 

दिनकर सोनवलकर की स्मृति में समारोह की रूपरेखा बनाते हुए मैंने सुझाया कि उनके जीवन और व्यक्तित्व पर केंद्रित वृत्तचित्र के निर्माण के साथ उनकी कविताओं में मौजूद संगीत-नृत्य की संभावनाओं को तलाशा जाए। उनके कविमना सुपुत्र प्रतीक सोनवलकर ने तत्काल इन्हें मूर्त रूप देने का संकल्प ले लिया। इसी दिशा में नृत्य रूपक सविनय समर्पित है।

वस्तुतः कविताओं का दृश्यीकरण अनेक चुनौतियाँ देता आ रहा है। विशेष तौर पर मुक्त छन्द की रचनाओं को नृत्य- रूपक में ढालना और मुश्किल रहा है। लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि दिनकर सोनवलकर ने स्वयं कहा है, "संगीत है मेरा जीवन, साहित्य मेरा तन मन।" फिर उनकी रचनाओं में मौजूद आंतरिक लय स्वयं नृत्य -रूपक के लिए आधारभूमि दे देती है।
इस प्रस्तुति के लिए सोनवलकर जी की विविध रंगों की कविताएँ चुनी गई हैं। प्रयास रहा है कि उनका काव्यत्व बाधित न हो, वरन् अपनी नूतन अर्थवत्ता के साथ ये रचनाएँ रसिकजनों तक पहुंचे। प्रतिभा संगीत कला संस्थान द्वारा प्रस्तुत इस नृत्य रूपक में नृत्य गुरु पद्मजा रघुवंशी के निर्देशन में कथ्य और संवेदना की अनुरूपता में बहुवर्णी नृत्य संरचनाएँ की गई हैं। कहीं कथक, कहीं ओडिसी, कहीं मालवी लोक शैली तो कहीं सालसा और समकालीन पाश्चात्य नृत्य शैलियों की बुनावट से कविताओं को तराश मिली  है। संगीत-मनीषी इन्दरसिंह बैस द्वारा निर्देशित संगीत-लय नियोजन में भी इसी वैविध्य का मधुर समावेश हुआ है। ध्वन्यांकन संयोजन जगरूपसिंह चौहान और तकनीकी परामर्श भूषण जैन का है।
कुल पौन घण्टे का यह नृत्य रूपक रसिकजनों को पसन्द आया। काव्य और कला के एक अनन्य समाराधक के प्रति आत्मीय कृतज्ञता के साथ यह नृत्य-संगीतांजलि अर्पित की है।

आत्मीय स्पर्श कविता में दिनकर सोनवलकर लिखते हैं-

बड़ों के पाँव छूने का रिवाज़
इसलिए अच्छा है
कि उनके पैरों के छाले देखकर
और बिवाइयाँ छूकर
तुम जान सको
कि ज़िन्दगी उनकी भी कठिन थी
और कैसे-कैसे संघर्षों में चलते रहे हैं वे।
बदले में
वे तुम्हें सीने से लगाते हैं
और सौंप देते हैं
अपनी समस्त आस्था, अपने अनुभव।
वह आत्मीय विद्युत- स्पर्श
भर देता है तुम्हारे भीतर
कभी समाप्त न होने वाली
एक विलक्षण ऊर्जा।
प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन


क्या कोई चलेगा कवि पथ पर: जावरा के दिनकर सोनवलकर मार्ग पर कविमना प्रिय प्रतीक सोनवलकर के साथ यादगार छबि

































प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा

20150523

फार्मूलाबद्ध लेखन से परे युगल की लघुकथाएँ - प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

लघुकथा को हाशिये में कैद होने से बचाने की बेचैनी लिए युगल की लघुकथाएँ
              प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

लघुकथा समकालीन साहित्य की एक अनिवार्य और स्वायत्त विधा के रूप में स्थापित हो गई है। नई सदी में यह सामाजिक बदलाव को गति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। विशेष तौर पर मूल्यों के क्षरण के दौर में अनेक लघुकथाकार तीखा शर- संधान कर रहे हैं। इस क्षेत्र में सक्रिय कई रचनाकारों ने अपनी सजग क्रियाशीलता और प्रतिबद्धता से लघुकथा की अन्य विधाओं से विलक्षणता को न सिर्फ सिद्ध कर दिखाया है, वरन उससे आगे जाकर वे निरंतर नए अनुभवों के साथ नई सौंदर्यदृष्टि और नई पाठकीयता को गढ़ रहे हैं। लघुकथा विशद जीवनानुभवों की सुगठित, सघन, किन्तु तीव्र अभिव्यक्ति है। यह कहानी का सार या संक्षिप्त रूप न होकर बुनावट और बनावट में स्वायत्त है। यह ब्योरों में जाने के बजाय संश्लेषण से ही अपनी सार्थकता पाती है।एक श्रेष्ठ लघुकथाकार इसके आण्विक कलेवर में 'यद्पिंडे तद्ब्रह्मांडे' के सूत्र को साकार कर सकता है। वह वामन चरणों से विराट को मापने का दुरूह कार्य अनायास कर जाता है।

वैसे तो नीति या बोधकथा और दृष्टांत के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से जारी है, किन्तु इसे साहित्य की विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठा हाल के दौर में ही मिली । नए आयामों को छूते हुए इस विधा ने सदियों की यात्रा दशकों में कर ली है। प्रारंभिक तौर पर माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय जैसे कई प्रतिष्ठित रचनाकारों ने इस विधा के गठन में अपनी समर्थ भूमिका निभाई । फिर तो कई लोग जुडने लगे और यह एक स्वतंत्र विधा का गौरव प्राप्त करने में कामयाब हुई। शुरूआती दौर में इसकी कोई मुकम्मल संज्ञा तो नहीं थी, कालांतर में इस संज्ञा को व्यापक स्वीकार्यता मिल गई। यद्यपि समय – समय पर कई संज्ञाएँ भी अस्तित्व में आईं,  किन्तु वे स्थिर न रह सकीं।     
     
बिहार की सृजन उर्वरा भूमि के रत्न,  वरिष्ठ कथाकार युगल जी (जन्म : 17 अक्टूबर, 1925 निधन : 26 अगस्त, 2016) ने लघुकथा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम देर से ही बनाया, किन्तु वे लघुकथा के विधागत गठन में योगदान देने वाले प्रमुख सर्जकों में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने अपने रचना काल के चार दशक उपन्यास, पूरी तरह कहानी, नाटक, कविता जैसी विविध विधाओं के सृजन को दिए। फिर 1985-86 के आसपास लघुकथा पर विशेष फोकस किया। तब तक विधा के नाम और आकार से जुड़ी बहस थम चुकी थी। तब से वे अन्य माध्यमों के साथ- साथ लघुकथाओं के सृजन को भी बेहद संजीदगी और निष्ठा से लेते रहे। उन्होंने तीन उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, तीन नाटक, दो कविता संग्रह और दो निबंध संग्रहों के साथ पाँच लघुकथा संग्रह दिए हैं। वे महज बंद कमरों में बैठकर रचना करने वाले लेखक नहीं हैं। उन्होंने जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए जो भी देखा-भोगा, उसे लघुकथाओं के जरिये साकार कर दिखाया है। लघुकथा के क्षेत्र में उनके द्वारा प्रणीत संचयन - उच्छवास, फूलों वाली दूब, गरम रेत, जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई और पड़ाव के आगे पर्याप्त चर्चित और प्रशंसित रहे हैं।    
लघुकथाकार युगल Laghukatha kar Yugal


लघुकथा के क्षेत्र में फार्मूलाबद्ध लेखन बड़ी सीमा के रूप में दिखाई दे रहा है, वहीं युगल जी उसे निरंतर नया रूपाकार देते आ रहे। उनकी लघुकथाओं में इस विधा को हाशिये में कैद होने से बचाने की बेचैनी साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनकी लघुकथाओं में प्रतीयमान अर्थ की महत्ता निरंतर बनी हुई है। भारतीय साहित्यशास्त्र में ध्वनि को काव्यात्मा के रूप प्रतिष्ठित करने के पीछे ध्वनिवादियों की गहरी दृष्टि रही है। वे जानते थे कि शब्द का वही अर्थ नहीं होता है जो सामान्य तौर पर हम देखते-समझते हैं। साहित्य में निहित ध्वनि तत्व तो घंटा अनुरणन रूप है, जिसका बाद तक प्रभाव बना रहता है। अर्थ की इस ध्वन्यात्मकता को युगल जी ने अनायास ही साध लिया था। उनकी अनेक लघुकथाएँ इस बात का साक्ष्य देती हैं।

युगल जी की निगाहें  कथित आधुनिक सभ्यता में मानव मूल्यों के क्षरण पर निरंतर बनी रही है। इसी परिवेश में कथित सभ्य समाज के अंदर बैठे आदिम मनोभावों को उनकी लघुकथा ‘जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई' पैनेपन के साथ प्रत्यक्ष करती है। मेले में खबर उड़ती है कि द्रौपदी चीरहरण खेल में द्रौपदी की भूमिका में युवा पंचमबाई उतरेंगी और दुःशासन द्वारा उसका चीरहरण यथार्थ रूप में मंचित होगा। रंगशाला में दर्शकों की भीड़ उमड़ आती है। अंततः द्रौपदी तो नग्न नहीं होती है, किन्तु वहाँ जुटे दर्शक जरूर नग्न हो जाते हैं। कभी मेलों – ठेलों में दिखाई देने वाली यह आदिम मनोवृत्ति आज के दौर में भी निरंतर बनी हुई है।

पारिवारिक सम्बन्धों का छीजना युगल जी को अंदर तक झकझोर देता है। उनकी लघुकथा 'विस्थापन' घरेलू वातावरण में दिवंगतों की तसवीरों के विस्थापन के बरअक्स इंसानी रिश्तों के विस्थापन की त्रासदी को जीवंत कर देती है। एक और लघुकथा तीर्थयात्रा में माँ की यह यात्रा अंतिम यात्रा में बदल जाती है, किन्तु बेटा संवेदनशून्य बना रहता है।

युगल जी ने जनतंत्र के राजतंत्र में बदल जाने की विडम्बना को अपनी कई लघुकथाओं का विषय बनाया है।  जनतंत्र शीर्षक रचना पब्लिक स्कूल में समाज अध्ययन की कक्षा में पढ़ते बच्चों के साथ शिक्षक के संवादों के जरिये हमारे सामने गहरा प्रश्न छोड़ जाती है कि क्या हम आजादी के दशकों बाद भी राजतंत्र से इंच भर दूर आ पाये हैं। चेहरे बदल गए हैं, किन्तु सत्ता का चरित्र जस का तस बना हुआ है।

बागड़ ही जब खेत को खाने लगे तो आस किससे की जाए? इस बात को वे पैनेपन के साथ उभारते हैं। आश्रय शीर्षक लघुकथा में बलात्कृता को सुरक्षित आश्रय में रख  दिया जाता है, किन्तु वह वहाँ भी महफूज नहीं रह पाती है। अंततः  आश्रय स्थल ही उसका मृत्यु स्थल सिद्ध होता है। उनकी एक और लघुकथा ‘पुलिस' रक्षकों के ही भक्षक बन जाने की भयावह स्थिति का बयान है ।

उनकी ‘पेट का कछुआ' एक अलग अंदाज की चर्चित लघुकथा है, जहाँ लेखक की आँखों देखी घटना रचना का कलेवर लेकर आती है। बन्ने के पेट में कछुआ है। उसके इलाज के लिए पहले तो उसके पिता चंदा जुटाने के लिए तत्पर हो जाते हैं, फिर यही कार्य व्यवसाय बन जाता है। बेटे के पेट के कछुए से पिता के पेट की भूख का कछुआ जीत जाता है।

उनकी लघुकथाएँ सर्वव्यापी सांप्रदायिकता पर तीखा प्रहार करती हैं । मुर्दे शीर्षक लघुकथा में मुर्दाघर में रखे मुर्दे भी कौम की बात करते दिखाये गए हैं। वहीं पर आया एक समाजसेवी भी अपनी कौम को ध्यान में रखे हुए है, फिर किसकी बात की जाए? एक गहरा प्रश्न युगल जी छोड़ जाते हैं। ‘नामांतरण’ लघुकथा में लेखक ने मानवीय सम्बन्धों के बीच धर्म के बढ़ते हस्तक्षेप को बड़ी शिद्दत से उभारा है।    अंध धार्मिकता के प्रसार के बावजूद युगल जी समाज के उन हिस्सों की ओर भी संकेत करते हैं, जहाँ अब भी संभावनाएं शेष हैं। ‘कर्फ्यू की वह रात’ इसी प्रकार की लघुकथा है, जहाँ एक माँ धर्म या जाति के नाम पर जारी भेदों को निस्तेज कर जाती है।       
   
युगल जी की लघुकथाओं में निरंतर नए प्रयोग करते रहे। उन्होंने प्रारम्भिक दौर में प्रतीक, मिथक आदि को लेकर महत्त्वपूर्ण कार्य किया , जो धीरे – धीरे ट्रेंड बन गया। उनके यहाँ पूर्वांचल की स्थानीयता का चटक रंग यहाँ-वहाँ उभरता हुआ दिखाई देता है, वहीं वे सहज, किन्तु बेहद गहरे प्रतीकों की योजना से बरबस ही हमारा ध्यान खींच लेते हैं। युगल जी मानते थे कि लघुकथा विचार, दृष्टि और प्रेरणा के सम्प्रेषण में एक तराशी हुई विधा है। यही तराश उनकी लघुकथाओं की शक्ति है और उन्हें इस सृजन धारा में विलक्षण बनाती है।

प्रो॰ शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन [म.प्र.] 456 010

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